परलोक का सफ़र
जिन्दगी की डगर मे पल भर का भरोसा है ही नही,
हम उम्र भर जीते जिसे वो जिन्दगी तो सच भी नही।
धड़कनो का सिलसिला आशाओं का दीप जलाए रखता है,
हम जिएंगे चिर,अनन्त तक ये भ्रम बनाये रखता है।
इन्सान अकेले ही सफर जिन्दगी का अपनी तय करता है,
पहाड़ सी जिन्दगी का हर सुख दुख का पड़ाव पार करता है। घर,परिवार,मित्र,रिश्तेदार सब जरूरी है जिन्दगी मे मगर,
पर कोई साथ नही देता यदि भूले से आ जाये गरीबी अगर।
साथ सब छोड़ देते है और अपने भी मुह मोड़ लेते है।
जिन्दगी जीने की खातिर तब नया रास्ता खोज लेते है,
मुसीबत पडते पर गरीब के बूढ़े कन्धे भी बोझ ढो लेते है।
गरीब को जमाने ने तो मारी थी बहुत सी ठोकरे पर,
और कुदरत ने भी ठण्ड मे उसकी नब्ज को थाम दिया।
बिन अलाव जिन्दगी मे जिसने कई ठंडी रातो को काट दिया,
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