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Showing posts from September, 2018

प्राथमिक विद्यालय

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"प्राथमिक विद्यालय तो है ज्ञान का घर, हमारे सपनो व सच्चे भविष्य निर्माण का घर। हम कुशल नेतृत्व में है पढ़ते और खेलते, शिक्षक हमारा बहुमुखी विकास है करते। हम खेल के मैदान मे है खूब करतब दिखाते, योग और व्यायाम मे है खूब निपुणता पाते। हमे गुरूजन सिखाते है सत्य, कर्त्तव्य,व परोपकार, अच्छी बात सिखाने को करते है प्रतिदिन नवाचार। पुस्तक 'हमारा परिवेश' से स्वस्थ्य जीवन जीना हमे आया है, 'संस्कृत पीयूषम' के श्लोकों ने नैतिकता का पाठ सिखाया है। 'परख' ने हमे जीव-जन्तु,पौधो से परिचित करवाया है, 'कलरव' की कविताओ से सस्वर वाचन करना आया है। 'रैनबो' ने आंग्ल भाषा के रंगो से जिन्दगी को सजाया है, 'गिनतारा' से हम सबको जोड़ घटाना सब कुछ आया है। अपने गाँव का प्राथमिक विद्यालय  हमारे मन को खूब भाया है, सरस्वती के इस पावन मन्दिर ने ज्ञान का दीप जलाया है।" रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'

मर्दानी

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शीर्षक:-'मर्दानी' "एक ही रानी लक्ष्मीबाई यहाँ नही दुश्मनों  संग लडती है, भूख,प्यास,बेरोजगारी संग तो रोज़ ही बलिवेदी सजती है। समर क्षेत्र मे तो रोज यहाँ हर मर्दानी लडती है। दो जून की रोटी खातिर वो तो सब कुछ करती है। बेटे को पीठ पर दे सहारा वह दुर्गा आगे चलती है, धर रूप काली का वह तो काल का खण्डन करती है। तलवार पुरानी हो गयी पर भुजाओं मे बल रखती है, काट शीश असंभावनाओ का वह तो आगे बढ़ती है। विपरीत है परिस्थितियां पर वह मर्यादा रखती है, इस तरह मर्दानी माँ का फर्ज भी पूरा करती है।" रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला "सीतापुर"

सच्ची निशानी

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"सिर पर मेरे ताज नही ये तसला है, दो वक़्त की रोटी का सब ये मसला है। शौहर मेरा शाहजहाँ जैसा धनी तो नही है, रूप मेरा मुमताज जैसा सुन्दर तो नही है। पर मुस्कान मेरी प्यार की सच्ची निशानी है, चेहरे पर सजा गुलाल वो देश की माटी है। हम गरीब प्रेम भावों को खूब समझते है, हमारे बन्धन तो सात जन्मो तक बंधते है। हम जीवन भर एक-दूजे का साथ निभाते है, हम जीते जी अपनो की कब्र नही खुदवाते है। हमारे यहाँ ऐसा उपहार नही दिया जाता है, जो है जीवित उसे मृत नही कहा जाता है। हम तो प्रेम मे संग जीते संग मर जाते है, हमे ताबूत-ए-संगमरमर नही दिये जाते है।" नोट:-फोटो साभार फेसबुक

क्रूरता

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Abhishekshuklasitapur मुझ पर यूं रौब तुम दिखाते हो, गरीब को तुम भी खूब सताते हो। किस्मत ने छीन लिया सब कुछ, तुम भी इस अनाथ को रुलाते हो। न भीख न दया मे कुछ माँगा मैने, न चोरी की न ही डाका डाला मैने। हर तकलीफ़ मुसीबत झेली मैने, पर मेहनत मजदूरी न छोड़ी मैने। पर यह सब भी तुमको क्यो खल गया? बोलो मानवता धर्म तुम्हारा कहाँ गया? नोट:-फोटो साभार फेसबुक

पापी पेट

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"पापी पेट की खातिर सब कुछ कर लिया, खुद से ज्यादा वजन कंधो पर सह लिया। जठराग्नि मिटती नही जतन सब कर लिया, दो जून की रोटी खातिर मै खूब भटक लिया। हाय इस गरीबी ने और भी है डस लिया, ऊपर से बुढ़ापे ने जी भर है रुला दिया। मैने किसी तरह अपने पेट को भर लिया, आज जीवन ने काल को फिर है हरा दिया। भूख मिटाई दोनो ने फर्क इतना हो गया, सबने खाकर फैका,मैने उठाकर खा लिया।" रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला"सीतापुर"

घुमक्कड़ हुनरबाज

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"रद्दी को भी लाइब्रेरी बना लेते है, मेहनत से किस्मत चमका लेते है। फैके हुये कागज़ के टुकड़ो पर, हम अपना हुनर आजमा लेते है। कोई नही सिखाता है सबक पर, जिन्दगी से ही हम सीख लेते है। किताबों मे है सब अच्छी बात पर, वजूद इसका जमाने मे देख लेते है। हमारी बस्तियों मे कोई नही आता पर, हम घुमक्कड़ सारा जमाना देख लेते है।" रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला "सीतापुर"

"हिन्दी"

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"हिन्दी तो है हिन्द की भाषा, अपनी तो है शान मातृभाषा। जो लिखो वही है पढ़ा जाता, सबके मन को यह खूब भाता। 'अ' से अज्ञानी है जाना जाता, 'ज्ञ' से ज्ञानी तो ये हमे बनाता। इसके महत्व को लो सब जान, इसका प्रयोग करना लो ठान। राजभाषा का हो सबको ज्ञान, "हिन्दी" का विश्व मे हो सम्मान।" हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.... रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला "सीतापुर"

सदा यूँ ही

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"धड़कन रुकने को थी नब्ज़ भी मेरी थमने को थी, प्रियतम को मेरे फिर भी पल भर की फुरसत न थी। रिश्ता हमारा अन्तिम आहों पर सिसक रहा था, उनका जश्न-ए-आजादी अपनो संग चल रहा था। खुश थे बहुत वो मुझ बिन ये मै देख रहा था, दुख दिये मैने ही सब क्या ये मै सोच रहा था। मै तन्हाईयो को समेटे उनका इंतजार कर रहा था, वो भूलकर मुझे अपनो संग महफिल सजा रहा था। उनके महफिलो के दौर अब सदा यूँ ही चलते रहे, वो मुझसे बेफिक्र होकर अब सदा यूँ ही हँसते रहे।"

ऐसा मत करना

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"सफलता के आयामों पर कभी फक्र मत करना, मिला मेहनत से उसका कभी जिक्र मत करना। किस्मत की लकीरें भी बदल जाती है मगर, हुनर से अपने कभी कोई समझौता मत करना। जुनून रखना जीतने का पर इतना खयाल रखना, अपनो का दिल दुखे कभी कुछ ऐसा मत करना। आजमाना अपनी बुलंदियो को तुम शिखर तक, इंसानियत पीछे छूट जाये कभी ऐसा मत करना।" रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला "सीतापुर"

माँ को नमन

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'घर को मंदिर बनाती है माँ, आँगन की रौनक बढाती है माँ। लाख दुख दर्द हँसकर है सहती, भूले से भी वो किसी से न कहती। बीमारी मे भी दायित्व है निभाती, परिवार के लिए सब सह जाती। अपनी कभी भी फिक्र न करती, सदा खुश निज बच्चों संग रहती। अपनी हिम्मत से घर है सम्हाले, माँ को नमन करो ये दुनियावाले।' रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'