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Showing posts from 2020

हम भी है राहों में

लेख:- हम भी है राहों में  हमें अक्सर कुछ ऐसे लोग दिख जाते है जो बहुत ही दयनीय अवस्था मे होते है। ऐसे लोग सड़क के किनारे, डिवाइडर पर बैठे हुये और इधर-उधर घूमते हुये दिखाई पड़ते है। ये फटे-पुराने कपड़े व चिथड़े लपेटे हुये होते है। कभी ये अर्ध या कभी पूर्णरूप से नग्नावस्था मे भी घूमते-फिरते दिखायी मिल जाते है। कौन है ये लोग? क्या इनका भी कोई अपना है इस दुनिया मे? क्या ये लोग हमेशा से ही ऐसे थे? क्या ऐसे प्रश्न आपके जहन मे आये कभी? क्या इन्हे देखकर इनके लिये हमें कुछ करना चाहिए? वास्तव मे, ऐसे लोग मानसिक रूप से विक्षिप्त होता है। इन्हे न तो अपना होश होता है और न ही इस दुनिया का। यहां तक ये अपना नाम और पहचान भी भूल चुके होते है। न ही इनका कोई घर होता है और न ही ठिकाना। ये अवारा यायावर बनकर अनन्त अंधकार की ओर बस चला करते है। इन्हे जाड़ा,गर्मी,बरसात से कोई फ़र्क नही पड़ता। चाहे पतझड़ हो या बसंत बहार किन्तु इनके जीवन मे सिर्फ होता है असीम अन्धकार। आखिर इनकी हालत ऐसी कैसे हो गयी? इनके घरवालों इन्हे घर ले जाकर इनकी देखभाल क्यो नही करते? इन बातों पर विचार अति आवश्यक हो जाता है। कुछ लोगों को छोड़कर बाकी सभ

ब्राण्डेड बुखार

लेख:- 'ब्राण्डेड बुखार' आजकल हर व्यक्ति अपने निजी काम को बहुत ही अच्छे ढंग से करने मे विश्वास रखता है। सबसे ज्यादा ध्यान तो इस बात पर रहता है कि हम अच्छा खाये,पिये और पहने। अब व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को निखारने और प्रभावशाली बनाने के लिये प्रयासरत रहता है। वह सोचता है कि वह सबसे अच्छा दिखे। इसलिये वह अनेक प्रयास और उपायों को अपनाता है। अपनी सुन्दरता,आकर्षण और व्यक्तित्व विकास हेतु वह महँगी वस्तुओं, कपडों और विभिन्न दैनिक उपयोग की चीज़ो को प्रयोग करता है। व्यक्तित्व विकास के लिये अच्छे और महँगे कपड़े,जूते पहनना धीरे-धीरे जरुरत से ज्यादा आदत बन जाती है। इस आदत पर काफ़ी खर्चा भी होता है। व्यक्ति दैनिक जीवन मे उपयोग होने वाली सभी चीजें ब्राण्डेड ही उपयोग करना पसंद करता है। ब्राण्ड का बुखार यानी ब्राण्डेड प्रोडक्ट्स खरीदने की आदत बच्चे,बूढ़े और जवान सभी के सिर चढ़कर बोल रही है। सभी अपने पसंदीदा कपड़े,जूते और दैनिक उपयोग की वस्तुयें ब्राण्ड स्टोर से ही खरीद रहे है। दूसरों को प्रभावित करने के लिये और दिखावे की खातिर लोग ब्राण्डेड बुखार की जकड़ मे आ चुके है। इससे बचने के लिये समझ रूपी पैरासी

मातृभाषा एकमात्र विकल्प

लेख:- 'मातृभाषा एकमात्र विकल्प'   मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो अपनी बात दूसरों तक पहुँचाने के लिये भाषा का प्रयोग करता है। वह अपनी बात लिखित,मौखिक व सांकेतिक रूप मे दूसरे तक प्रेषित करता है। भाषा संप्रेषण का कार्य करती है। यह आवश्यक वार्तालाप,भावनाओं,सुख- दुख और विषाद को प्रकट करने मे सहयोग देती है। भारत देश मे लगभग तीन हजार से ज्यादा क्षेत्रीय व स्थानीय भाषाओं का प्रयोग लोगो द्वारा किया जाता है। भारतीय सविंधान मे इक्कीस भाषाओ को मानक स्थान प्रदान किया गया है। शिक्षा के क्षेत्र मे भाषा का अतिमहत्वपूर्ण योगदान है। भाषा के बिना किसी पाठ्यक्रम व विषय ज्ञान की कल्पना भी नही की जा सकती है। भारत के इतिहास का अध्ययन करने पर हम संस्कृत,पालि,अरबी,फ़ारसी आदि अनेकानेक भाषाओं के बारे मे पढ़ते है। संस्कृत भाषा की महत्ता हमे उसके उन्नत,समृद्ध साहित्य और व्याकरण से ज्ञात होता है। भारत विविधताओ का देश है। ऐसे मे बहुभाषिता का होना कोई बड़ी बात नही है। बच्चे अपने आस-पास के परिवेश मे प्रचलित भाषा को आसानी से सीख लेते है। जिस भाषा को उनकी मातृभाषा कहा जाता है। इस भाषा को सीखने के लिये बच्चों को

दर्द

जो है अपने खुद ही दर्द को पहचान लेंगे, मुनासिब नही है जाहिर वो हर बात करे। आपके दर्द से वाकिफ़ पूरी तरह से है,  नासूर न बने दर्द इसलिये चुप रहते है।  दुआ है कि हालात कुछ ठीक हो जाये,  खुशियों के बीच आप दर्द को भूल जाये।

मुश्किल

नामुमकिन होगा किसी और को ये दिल सौप पाना,  पर मुश्किल- सा लगता है तेरा लौटकर फिर आना।

सत्ता

वक्त रहते सही कर लो इन बिखरे मुद्दों को,  कही किसान बन्दूकें न बो दे अपने खेतों मे।  जब भी सत्ता का सिंघासन नशे मे चूर होता है,  उसे जगाने फिर से कोई भगत सिंह आता है। 

खुद को ही बदल डालों

शीर्षक:- 'खुद को ही बदल डालों'  अगर बदलना ही चाहते हो कुछ तो खुद ही बदल डालों,  उतार दो चादर अहम की जैसे हो वैसे ही नजर आओ।  बहुत दिखावा हो गया अब असलियत ही दिखाओं,  कब तलक चलेगा फरेब अब उम्र रहते ही संभल जाओ।  किस- किस से तुम अपनी असलियत छिपा पाओगे,  हर आँख तुम पर लगी है अब असंभव है कि बच पाओगे।  समय से समय पर यह बात तुम भी समझ जाओगे,  कोई नही यहाँ अपना यह सच एक दिन जान जाओगे।  तुम ही हो सबसे बेहतर यह गलतफहमी अब न पालो,  अगर बदलना ही चाहते हो कुछ तो खुद को ही बदल डालों।।  रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'

शून्य

कर्त्तव्य शून्य पर भी अधिकार सबको चाहिये।  षड़यंत्र से ही सही पर आराम मिलना चाहिये।।

अमर शहीद पण्डित राजनारायण मिश्र

शीर्षक:- 'अमर शहीद पण्डित राजनारायण मिश्र 'आजादी की लड़ाई के लिये मुझे केवल दस देशभक्त चाहिये जो त्यागी हो और देश की खातिर अपनी जान की बाज़ी लगा दे। मुझे कई सौ आदमी नही चाहिये जो बड़बोले और अवसरवादी हो। अंग्रेजो के विरुद्ध इसी भावना से क्रांति का बिगुल श्री राजनारायण मिश्र जी ने फूंका। महान क्रांतिकारी श्री राजनारायण मिश्र जी का जन्म उत्तर प्रदेश के जनपद लखीमपुर खीरी के भीषमपुर गाँव में संवत 1976 के माघ महीने की पंचमी को हुआ था। इनके पिता पंडित बलदेव प्रसाद और माता तुलसा देवी थी।  राजनारायण मिश्र निर्भीक, चिंतनशील और बचपन से ही क्रांतिकारियों व महापुरुषों की कहानियाँ सुनने के शौकीन थे। इनका गाँव कठिना नदी के किनारे स्थित था और यहाँ के लोगों का जीवन भी नदी के नाम जैसा कठिन था। उन्होनें बड़े होकर जाना कि यह दयनीय स्थिति सिर्फ उनके गाँव की ही नही अपितु पूरे देश की है। जिसका प्रमुख कारण अंग्रेजी साम्राज्य है। फ़िर क्या था वह भी अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ाई में कूद पड़े। राजनारायण मिश्र ने खुद को चौदह नियमों व तीन प्रतिज्ञाओं से बांध रखा था। इन्होनें चालीस साथियों के साथ मिलकर अंग्रेज विरोधी व

मीना मंच

लेख-  यूनीसेफ़ परिकल्पना: मीना की दुनिया यूनीसेफ की एक परियोजना के तहत देश के कई राज्‍यों में पहले उच्च प्राथमिक फिर प्राथमिक विद्यालयों में मीना मंच की स्‍थापना की गई है। इसका उद्देश्‍य बालिका शिक्षा को प्रोत्‍साहित करना है। मीना को केन्‍द्रीय पात्र बनाकर कई कहानियों तथा फिल्‍मों की रचना भी की गई है। मीना मंच का गठन कैसे? मीना मंच में 20 छात्राएं सदस्य होती हैं। जिसमें से पांच छात्राओं की कार्यकारिणी समिति गठित होती है। उसी में से एक अध्यक्ष, एक सचिव, एक कोषाध्यक्ष एवं दो सदस्य होते हैं। कार्यकारिणी समिति का कार्यकाल एक वर्ष का होता है। अब प्रश्न यह  उठता है कि मीना कौन है?? बालिकाओं के मुद्दों को सरल एवं सहज रूप से समझने के लिए मीना नाम की लड़की का एक काल्पनिक चरित्र बनाया गया है। प्रत्येक वर्ग एवं समाज की बालिकाएं स्वयं का इससे जुड़ा महसूस कर सकती है। मीना एक उत्साही और विचारवान किशोरी है। जिसमें उमंग,उल्लास,सामाजिक बाधाओं के विरुद्ध लड़ने का जज्बा रखती है और समस्या समाधान हेतु किसी से बातचीत करने में हिचकिचाती नही है। मीना अपने माता-पिता, दादी, भाई राजू और बहन रानी के साथ रहती है। मि

सूचना- शिकायत में अन्तर समझे

लेख:- सूचना और शिकायत में अन्तर समझे  सूचना के माध्यम से आँकड़ो का एकत्रीकरण करके उन्हे सम्बंधित संस्था, प्राधिकारी और सरकार तक प्रेषित किया जाता है, ताकि आपके सेवारत क्षेत्र को अधिक कार्यकुशल व प्रभावी बनाया जा सके। सूचनाओं का आदान- प्रदान एक नियत व्यवस्था के तहत सम्पादित होता है। सूचनाओं के संकलन के लिये संस्था,विभाग,सरकार या अधिकारी द्वारा किसी कर्मचारी को नियत किया जाता है। जिसका कार्य अपने कार्यरत विभाग,क्षेत्र या प्रदत्त सूचनाओं का संग्रहण कर उन्हे संबंधित प्राधिकारी तक प्रेषित करना होता है। जो सूचनाये उसे अपने सहकर्मियों तथा संबंधित क्षेत्र के व्यक्तियों द्वारा उपलब्ध करायी जाती है। वह सभी प्रदत्त सूचनायें सम्बंधित प्राधिकारी को तुरंत उपलब्ध करा देता है। परन्तु कुछ लोग सूचना प्रदान करने में लापरवाही करते है। विभाग या संस्था द्वारा माँगी गयी सूचना को नामित व्यक्ति तक भेजते ही नही है। कभी- कभी सूचना देने में अति विलम्ब कर देते है। जिससे विभागीय कार्यों में बांधा भी उत्पन्न होती है। कुछ कर्मचारी लापरवाही और उदासीनता दिखाते हुये स्वयं सूचनाएँ उपलब्ध नही कराते है और इसी के साथ सूचना स

हिन्दी क्यों पढ़ते है

शीर्षक:- हिन्दी क्यों पढ़ते है  हिन्दी मात्र भाषा नही बल्कि सभी भाषाओं की धड़कन है। हिन्दी ने सभी भाषाओं को अंगीकार करके उनका मान बढ़ाया है। हिन्दी समाज को दिशा देने का कार्य करती है। हिन्दी वैज्ञानिक भाषा है जो शरीर के विभिन्न अंगो कण्ठ,मूर्धन्य,तालव्य,ओष्ठय और दन्त आदि का प्रयोग करके बोली जाती है। जो अंगो की क्रियाशीलता के साथ उच्चारण को भी स्पष्ट बनाती है। रस और अलंकार हिन्दी को जीवन्त और भावपूर्ण बनाते है। इस भाषा की एक विशेष बात है कि इसे जैसा लिखा जाता है, वैसा पढ़ा भी जाता है। हिन्दी भारत मे एक विषय के रूप मे पढ़ायी जाती है। जैसे कि अन्य विषय भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान ,गणित और अन्य विषय आदि। जब हम किसी विषय को पढ़ते है तो उसका एक निश्चित उद्देश्य होता है। जीव विज्ञान ठीक से पढ़ लो तो डॉक्टर बन जाओगे और भौतिक विज्ञान व गणित पढ़ लो तो अभियन्ता बन जाओगे। हमें यह बताया जाता है। यह ज्वलन्त प्रश्न है और उसका उत्तर भी हमें ही खोजना है कि हिन्दी क्यों पढ़ायी जाती है? हिन्दी का पढ़ाने का उद्देश्य इतना सीमित नही है कि उसे परिभाषित नही किया जा सकता। हिन्दी मानवीय गुणों का विकास क

मैं प्रतिमा हूँ

शीर्षक:- मै प्रतिमा हूँ   सरल,सौम्य,निश्चल और अनन्त प्रेम की धार हूँ,  संशय,भय और अन्धकार में तीक्ष्ण तलवार हूँ।  दया और ममता की जीती जागती प्रतिमा हूँ,  सृष्टि के प्रारंभ और अनन्त की अविरल कविता हूँ। परिवार,समाज और देश की सच्ची पतवार हूँ,  मैं नारी हूँ इस ब्रम्हाण्ड का सच्चा श्रृंगार हूँ।  मैं पीर का पर्वत और सुखों का संसार हूँ,  मैं इस सम्पूर्ण संसार की सच्ची खेवनहार हूँ।  मैं हूँ उमा तो मैं ही काली का अवतार हूँ।  मैं नारी हूँ, मैं जीवन की सच्ची पतवार हूँ।  रचनाकार:  अभिषेक कुमार शुक्ला  सीतापुर,उत्तर प्रदेश

दीक्षा ऐप

दीक्षा ऐप बहुत गुणकारी इसमें ज्ञान की दुनिया सारी।  शिक्षक- शिक्षार्थी दोनो हेतु यह है अत्यन्त लाभकारी।   सभी राज्यों द्वारा संचालित पाठ्यक्रम का संग्रह न्यारा।  क्यूआर कोड के माध्यम से पाठ्यवस्तु पढ़ना लगता है प्यारा। सभी विषयों और भाषाओं का इसमें है समुचित सरल ज्ञान। इसमें सभी भाषाओं संग मातृभाषा को मिलता है मान।   शिक्षकों हेतु विभिन्न विषयों के उपलब्ध है सारे प्रशिक्षण।  जो सहायक सिद्ध होते है और उपयोगी बनाते है कक्षा शिक्षण। इसमें खेल आधारित गतिविधियों से सम्बंधित वीडियो है सारी। बच्चे देखकर है सीखते और उन्हे यह सब लगती है बहुत प्यारी। दीक्षा ऐप बहुत गुणकारी इसमें ज्ञान की दुनिया सारी।  शिक्षक-शिक्षार्थी दोनो हेतु यह है अत्यन्त लाभकारी।।

जरा ! देख के चलो

लेख - 'जरा! देख के चलो'  प्राचीनकाल में मानव स्वयं के विवेक के अनुसार जंगलो के बीच से रास्ते खोजकर अपनी मंजिल तक पहुँचता था। धीरे-धीरे कच्चें रास्ते बने और हमारे पुरखे उन पर पैदल,साइकिल और बैलगाड़ी से चलने लगे। विकास का पहिया घूमा और फिर सड़को का निर्माण हुआ। समय परिवर्तित हुआ फिर फर्राटे भरते हुये अत्य- आधुनिक गाड़ियो का जमाना आ गया। दुर्घटनाएं भी बढ़ने लगनी जिसके कारण सरकार द्वारा यातायात के कुछ नियम बनाये गये ताकि सभी सुरक्षित रहे। हम सबको पता है कि हमें सड़क पर बायी ओर चलना चाहिये। वाहन की गति कम रखनी चाहिये और यातायात के अन्य सभी नियमो, सड़क के किनारे बोर्ड पर दर्शाये गये संकेतो और यातायात पुलिस के दिशा निर्देशों को हमे अवश्य ही पालन करना चाहिये। दुपहिया वाहन चलाते समय हेलमेट व चार पहिया वाहन का प्रयोग करते हुये सीट बेल्ट का प्रयोग अवश्य ही करे। वाहनों का प्रयोग करने से सम्बंधित यातायात के नियमों से आप सब भलीभाँति परिचित है। यातायात के नियम पैदल चलने वालों के लिये भी है। जिस सड़क पर डिवाइडर बने हुये वहाँ पर आप सड़क के बायी ओर चले। जहाँ तक सम्भव हो फूटपाथ का ही प्रयोग करे।जिस सड़क

शिक्षक कैसे होने चाहिये

लेख- 'शिक्षक कैसे होने चाहिये' युग निर्माता,छात्रों का भाग्य विधाता और उनके उज्ज्वल भविष्य को सुदृढ़ सरंचना प्रदान करने वाला शिक्षक ही होता है। शिक्षाविदों और मनीषियों ने शिक्षक की बहुत सी मान्य परिभाषायें दी है किन्तु ईश्वर,माँ और शिक्षक को कोई भी विद्धान परिभाषित नही कर सकता और न ही इन्हें शब्दों में बांधकर इनको सीमित किया जा सकता है। इनकी महिमा का सिर्फ हम बखान कर सकते है। जो किसी के जीवन की गाथा स्वयं लिखता है उसे नये आयाम प्रदान करता हो, इसलिये शिक्षक वन्दनीय और उनका पथ अनुकरणीय होता है। शिक्षक सच्चा पथप्रदर्शक होता है। समाज शिक्षक से बहुत- सी आशायें रखता है। जिनकी पूर्ति सिर्फ शिक्षा के माध्यम से शिक्षक ही कर सकता है। संस्कारयुक्त समाज की स्थापना केवल शिक्षक के प्रयासों से ही सम्भव है। समाज इस बात को स्वीकार भी करता है। इसलिये वह अपेक्षा  करता है कि शिक्षक कैसे होने चाहिये? शिक्षक सिर्फ शिक्षा ही नही देते अपितु वे अपने किरदार को जीते है। इसलिये शिक्षक सदाचारी,कर्तव्यनिष्ठ व समय का पाबंद होना चाहिये। देशकाल,वातावरण व वैश्विक सम्बन्धों में निरंतर परिवर्तन हो रहे है।

जागो अभिभावक जागो

*जागो अभिभावक जागो*  शिक्षा जीवन का आधार होती है। शिक्षा हमें जीवन जीने की कला प्रदान करती है। शिक्षाविदों ने शिक्षा को अलग-अलग तरह से परिभाषित किया। लेकिन सबने स्वीकार किया कि शिक्षा बालक का शारीरिक,मानसिक और अध्यात्मिक विकास करती है और उसे भविष्य के लिये तैयार करती है। जब बात शिक्षा की आती है,तो हमें शिक्षक,शिक्षार्थी,पाठ्यक्रम,स्कूल और कक्षा याद आती है। जिसमें प्रमुख स्थान शिक्षक का होता है। शिक्षक अपने छात्रों को सभी विषयों का ज्ञान प्रदान करते है और उन्हें सुनहरे भविष्य के लिये गढ़ने का कार्य करते है। जान डीवी ने शिक्षा को त्रिमुखी प्रक्रिया कहा था,जिसमें शिक्षक,शिक्षार्थी और पाठ्यक्रम को स्थान दिया। पाठ्यक्रम का महत्व है किन्तु शिक्षा सिर्फ ज्ञान प्रदान करना ही नही है। ज्ञान तो कई माध्यमों से प्राप्त किया जा सकता है। विषयवस्तु तो किताबों,गूगल और समाचार पत्रों,पत्रिकाओं में भरी पड़ी है। शिक्षा का उद्देश्य सर्वांगीण विकास है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी शिक्षा त्रिमुखी प्रक्रिया ही है यह बात मैं स्वीकार करता हूँ। मेरे अनुसार शिक्षा की प्रक्रिया के प्रमुख अंग शिक्षक,शिक्षार्थी और अभिभ

नई शिक्षा नीति 2020

शीर्षक:- 'नई शिक्षा नीति दूरदर्शिता व दृढ़ संकल्प आधारित' भारत देश के लाखों छात्रों,शिक्षकों,अभिभावकों, शिक्षाविदो,जनप्रतिनिधियों व लगभग एक लाख पच्चीस हजार ग्राम समितियों से विचार-विमर्श के उपरांत नई शिक्षा नीति तैयार की गयी। इस नीति को शैक्षिक सत्र 2021-22 में लागू किया जा सकता है। नई शिक्षा नीति 5+3+3+4 के प्रारूप पर तैयार की गयी है। जिसमें आर.टी.ई. के दायरे को बढ़ाकर 3 से 18 आयु वर्ग के छात्रों को शामिल किया गया है। *1.* पहले,5 वर्ष को फाउंडेशन स्टेज माना गया है। इसमें 3 साल प्री- प्राइमरी व शेष 2 साल कक्षा 1 व 2 के लिये है।इसमें बच्चों की मजबूत नींव तैयार की जायेगी।शिक्षा मातृभाषा,स्थानीय भाषा व राष्ट्रभाषा में दी जायेगी। अंग्रेजी में पढ़ायी की अनिवार्यता खत्म होगी। अंग्रेजी मात्र एक विषय के रूप मे पढ़ायी जायेगी। इस स्टेज को 3 से 8 आयु वर्ग के बच्चों के लिये तैयार किया गया है। यह पूर्णरूप से 'खेलो,कूदो और पढ़ो' के सिद्धान्त पर आधारित है। *2.* इसके बाद के 3 साल में कक्षा 3 से 5 के बच्चों का भविष्य तैयार किया जायेगा। इसमें 8 से 11 वर्ष के बच्चों का परिचय विज्ञान,गणित,

बाबा का स्कूल

बचपन की बात है, जब मैं लगभग नौ वर्ष का था। मैं और मेरा छोटा भाई अभिजीत बाबा के साथ उनकी साइकिल पर बैठकर उनके स्कूल को गये। मेरे बाबा श्री चतुर्भुज शुक्ला जी सरकारी प्राथमिक विद्यालय बीबीपुर दहेलिया में प्रधानाध्यापक पद पर कार्यरत थे। हम शहर में पढ़ते थे। उस दिन अपने गाँव बण्डिया में होने के कारण हमें भी बाबा के स्कूल जाने का अवसर मिला।   बाबा जी से रास्ते भर हम दोनों खूब बातें करते हुये गये। जब बाबा के विद्यालय पहुँचे तो सब बच्चें हमें घूर रहे थे। उन लोगों ने बाबा से गुरुजी नमस्ते करते हुये पूँछा, " ये दोनों कौन है ?" बाबा ने उन्हे हमारे बारें में बताया। प्रार्थना सभा के उपरान्त सब बच्चें अपनी कक्षाओं में चले गये। बाबा के साथी शिक्षकों ने हमसे खूब कवितायें सुनी। हमारी तारीफ़ भी हुयी।  बाबा भी हम पर बहुत खुश हो गये। हम लोगो को खेल खेलने की अनुमति मिल गयी। विद्यालय के बच्चों के साथ हमनें खूब मज़े किये। तभी वहाँ थोड़ी बारिश होने लगी। हम सब बहुत खुश थे।  उस दिन शिक्षक दिवस भी था। बारिश होने के कारण सभी बच्चें बरामदें में एक साथ बैठे। एक मेज पर श्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन व ज्ञान की द

एक देश,एक परीक्षा

करोड़ो युवा प्रतिभागी परीक्षाओं की तैयारी में इस आशा से लगे रहते है कि उन्हें एक अच्छी सरकारी नौकरी मिल जाये। वे विभिन्न परीक्षाओं की अलग- अलग तैयारी करते है। जिसके लिये अलग- अलग पाठ्यक्रम होने की वजह से ढ़ेर सारी किताबें खरीदनी और पढ़नी पड़ती है। उनके लिये अब कुछ राहत की खबर लेकर आयी है राष्ट्रीय भर्ती एजेन्सी। जो युवा बैंक, रेलवे और एस.एस.सी की तैयारी कर रहे है, उनके लिये खुशी की खबर है।  लगभग तीन करोड़ युवा इन परीक्षाओं की तैयारी में जुटे रहते है। इस तरह की परीक्षाओं का अब तक आयोजन देश मे लगभग 20 एजेन्सियों द्वारा कराया जाता रहा है। राष्ट्रीय भर्ती एजेन्सी द्वारा अब रेलवे, बैंक और एस.एस.सी. की प्रारम्भिक परीक्षा का आयोजन सम्मिलित रूप से हो गया। मतलब इनकी प्रारम्भिक परीक्षा अलग- अलग न होकर एक ही होगी। अब छात्रों को इनके लिये अलग- अलग आवेदन से भी छुटकारा मिलेगा। अब इन तीनों भर्ती के लिये एक ही आवेदन करना होगा। इस परीक्षा को कॉमन एलिजिबिलिटी टेस्ट का नाम दिया गया है। इस परीक्षा में प्राप्त अंको के आधार पर ही छात्र रेलवे, बैंक और एस.एस.सी की मुख्य परीक्षा दे सकेंगे। इस परीक्षा में प्राप्

रद्दी

अनमोल थे मेरे विचार!  फ़िर ... अखबार में छपें और रद्दी हो गये।  बेशकीमती थे हम हम उनके लिये!  फ़िर ...इश्क़ हुआ  और हम बेकार हो गये।।

हम तो बड़े आदमी हो गये

लेख :- 'हम तो बड़े आदमी हो गये'  आज आपकों ले चलता हूँ आपके बचपन की ओर,जहाँ न कोई चिन्ता थी और न ही कुण्ठा। जीवन में उमंग,जोश,खुशियाँ और बस शरारतें थी।  कितना प्यारा था बचपन! तनिक- सी बात पर रूठना और फिर खुश हो जाना। अपने दोस्तों संग खेलना- कूदना और स्कूल जाना। अपनी नयी साईकिल पर दोस्तों को घुमाना और चिल्लर से ही पार्टी हो जाना। मिल बाँटकर हर चीज़ भाई- बहनों और दोस्तों के साथ खाना। झगड़ा और सुलह तो दिन में पचास बार होना। साल भर गर्मियों की छुट्टियों का इंतजार करना और फिर नानी और बुआ के घर जाना। सभी से यथोचित अभिवादन,न ईर्ष्या और न ही द्वेष की भावना का होना। हमारी भी नाव पानी में चलती थी। हमारा हवाई जहाज भी हवा में उड़ता था। कागज़ के थे तो क्या हुआ। अपने घर के बड़े से आँगन में खेल खेलना। होली पर नये कपड़े पहनकर घर- घर जाना। दीपावली पर संग मिलकर दीप जलाना। कितना याद आता है बचपन! उम्र के साथ- साथ सब कुछ परिवर्तित हो गया है या हम बदल गये है? ये विचारणीय है। कुछ भी हो किन्तु पर अब हम बड़े आदमी हो गये है।   हम भले ही सरकारी, प्राइवेट या मल्टी-नेशनल कम्पनी में काम करके अच्छी तनख्वाह पा रह

चिराग

चिरागों से कह दो थोड़ा फुर्सत में रहे अब कुछ अँधेरे भी अच्छे हैं।  लोगों के चेहरे पर चेहरा है यहाँ और उनमें राज भी बहुत गहरें है।

लेख:- शिक्षक,शिक्षार्थी और ऑनलाइन शिक्षण

शीर्षक :- 'शिक्षक,शिक्षार्थी और ऑनलाइन शिक्षण' शिक्षा ही जीवन का आधार है।इसीलिये शिक्षक देशकाल,वातावरण व समय के अनुरूप अपनी शिक्षण विधाओं में भी परिवर्तन करते रहते है, ताकि प्रभावी शिक्षण के माध्यम से बच्चों को लाभान्वित कर सके।शिक्षक सुदृढ़ समाज के निर्माण हेतु सदैव तत्पर व वचनबद्ध रहते है। इसकी जीती जागती तस्वीर इस समय कोरोना जैसी महामारी के काल में भी देखी जा सकती है।शिक्षक ऑनलाइन शिक्षण द्वारा बच्चों तक ज्ञान की गंगा प्रवाहित कर प्रफुल्लित हो रहे है। इन विकट परिस्थितियों में जब विद्यालय बन्द है, तब ऑनलाइन शिक्षा ही एकमात्र विकल्प है।किन्तु ऑनलाइन शिक्षण से न ही शिक्षक संतुष्ट है और न ही शिक्षार्थी और अभिभावक। ऑनलाइन शिक्षण के माध्यम से शिक्षक विषयवस्तु को अपने शिक्षण के माध्यम से बच्चों तक प्रेषित अवश्य कर रहे है किन्तु वह स्वीकार करते है कि उनका शिक्षण इस दशा में इतना प्रभावी नही हो पाता जितना कि विद्यालय की एक कक्षा में होता है। दूसरी तरफ, बच्चों को भी ऑनलाइन शिक्षण एक जटिल प्रक्रिया लगती है। उन्हे भी विषयवस्तु को समझने मे कठिनाई का अनुभव होता है। बच्चों को कई घण्टो तक इस

कुछ लिख पाऊँ

"प्रभु! सूरदास सम दृष्टि देना मैं आपके दर्शन कर पाऊँ, 'सूरसागर' में अपनी सब मैं अभिलाषा लिख पाऊँ।  कृपा से आपकी तुलसीदास-सा मैं बैरागी बन जाऊँ,  "मानस" की रचना कर 'मानस' को मानस कर पाऊँ।  जीवन की सत्यता का मैं भी घर- घर दीप जलाऊँ,  कागज़ कलम छुएं बिना मैं ज्ञानी कबीर बन जाऊँ।  जब भी प्रभु अवतार धरो संग सखा बनकर आऊँ,  आप बनो कृष्ण- कन्हैया मैं सुदामा बन जाऊँ।  प्रभु आपका वात्सल्य मिले तो भक्त हनुमान बन जाऊँ,  माता सीता की सुधि लेकर लंका दहन मैं कर आऊँ।  प्रभु दो वरदान कि अपनी लेखनी से मैं कुछ लिख पाऊँ,  आपकी स्तुति कर मैं अपना जीवन सफल कर जाऊँ।" रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला  शिक्षक,विचारक,साहित्य साधक सीतापुर,उत्तर प्रदेश 

मैं हूँ सुदामा तो मैं ही कृष्ण हूँ

मेरा मित्र सखा तो मैं ही स्वयं हूँ ,  मैं हूँ सुदामा तो मैं ही कृष्ण हूँ।  मैं ही सुख- दुख का संयोग हूँ,  मैं हूँ मिलन तो मैं ही वियोग हूँ।  मैं माँ की ममता- सा शान्त हूँ,  मैं ही द्रोपदी का अटूट विश्वास हूँ।  मैं प्रलय का अन्तिम अहंकार हूँ,  मैं ही भूत,भविष्य और वर्तमान हूँ।  मैं नित्य ही प्रभु का वन्दन करता हूँ,  परिश्रम से स्वेद को चंदन करता हूँ।  विपरीत परिस्थितियों में हिम्मत रखता हूँ,  जुनून से अपने उनका सामना करता हूँ।  जब कभी कुण्ठा अत्यधिक व्याप्त होती है,  अन्तर्मन में सुदामा से मुलाकात होती है।  स्वयं ही स्वयं से स्वयं का आकलन करता हूँ ,  स्वयं सुदामा बन कृष्ण का अभिनंदन करता हूँ।  अपनी परिस्थितियों का मैं ही कर्णधार हूँ,  मैं हूँ पुष्प तो मैं ही तीक्ष्ण तलवार हूँ।  मेरा मित्र सखा तो मैं ही स्वयं हूँ।  मैं हूँ सुदामा तो मैं ही कृष्ण हूँ।। रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर' समाजसेवी व साहित्य साधक

पितृसत्तात्मक समाज

पितृसत्तात्मक समाज पर चर्चा के पूर्व यह समझ लेना अत्यन्त ही आवश्यक है कि पितृसत्ता क्या होती है? पितृसत्ता अंग्रेजी के पैट्रियार्की (Patriarchy)का हिन्दी रूपांतर है।पैट्रियार्की शब्द दो यूनानी शब्दो पैटर (Pater) और आर्के (Arche) से मिलकर बना है।जिनका अर्थ क्रमशः पिता और शासन है।अत:पैट्रियार्की का अर्थ पितृसत्ता होता है। इसलिये जो समाज पितृ यानि पुरुष के दिशा निर्देश व नियन्त्रण मे रहता है उसे पितृसत्तात्मक समाज कहते है। कुछ विचारक व पितृसत्तात्मक समाज को महिला विरोधी मानते है।उनका कहना है इस समाज मे महिलाओं को दूसरे पायदान पर रखा जाता है और उनका शोषण किया है। इन्ही कुण्ठित विचारो का नाजायज फायदा उठाकर कई महिला संगठन समाज की शान्ति को भंग करके उसे असंतुलित कर रहे है। इतिहास साक्षी है कि हमारे देश मे हमेशा से ही नारी पूजनीय रही है,उन्हे देवी का रूप माना जाता है।पुरुष और महिलायें हर क्षेत्र मे हमेशा से ही कन्धे से कन्धा मिलाकर विकास की ओर अग्रसर रहे है। पितृसत्तात्मक समाज,प्रथम दृष्टा शोषणयुक्त भले ही लगता हो परन्तु इसके संचालन मे समाज अनुशासित रहता है व तीव्र गति से विकास को प्राप्

जीवन का लें संकल्प, आत्महत्या नही है विकल्प

लेख:- आत्महत्या यानी खुद ही खुद की हत्या कर लेना।अपने आप ही अपने प्राण ले लेना अर्थात् आत्महत्या कर लेना उचित नही है। आत्महत्या एक जघन्य अपराध है।ईश्वर के द्वारा दिये गये अनमोल जीवन की लीला समाप्त कर लेना,एक अनुचित कार्य है। सभी के जीवन में ऐसी परिस्थितियाँ कभी न कभी अवश्य उत्पन्न हो जाती है,जब व्यक्ति को उन समस्याओं से निकलने का कोई भी मार्ग दिखायी नही देता।वह कुंठाग्रस्त होकर मानसिक तनाव भी सहन करता है।परन्तु तब उसका धैर्य व शिक्षा ही उसे जीवन का मार्ग दिखाते है। वर्तमान आर्थिक युग में बहुत सी समस्यायें हमने खुद भी तैयार कर ली।पश्चिमी सभ्यता के अनुसरण,दिखावे के प्रचलन और झूठी प्रतिस्पर्धा के कारण हम नित नवीन समस्याओ में उलझ जाते है। आज की जिन्दगी मे कुछ भी स्थिर नही है।विश्वासघात,राजनीति और रिश्तों की अस्थिरता हमारे जीवन का अंग बन चुके है।कभी रोजगार मे उच्च लक्ष्य प्राप्ति,ज्यादा मुनाफ़ा की चाह भी हमे चिंताग्रस्त करती है। कभी पारिवारिक कलह भी हमे बहुत कष्ट देती है।आज प्रत्येक व्यक्ति स्वंतंत्र रहना चाहता है तथा अपने हिसाब से अपना जीवन जीने की चाह रखता है।किसी का तनिक भी हस्त

वहम

सबने अपने किरदार पर पर्दे डाल रखे है।  फैसला मेरा करेगे...  यह वहम भी पाल रखे है।।

नासमझ

जो अपनी खुद की पहचान छिपाये बैठे है।  वो नासमझ मेरे वजूद पर शर्त लगाये बैठे है।।

शर्म करो

 "लज्जा नही आती जब देश के खिलाफ़ बोलते हो,  जिस थाली में खाते हो उसी में छेद करते हो।  इसी देश मे जन्मे यही पले और बड़े हुये,  बोले दुश्मन के जैसे क्यों शब्द तुम्हारे तीक्ष्ण हुये।  इसी धरा पर न जाने कितने देशभक्तों ने जन्म लिया,  जन्मभूमि की खातिर अपने प्राणों का बलिदान दिया। देशद्रोहियों!रोटी खाते हो यहाँ की और गुण दुश्मन के गाते हो, आती न तुमको तनिक भी लाज अपने कुकर्मो पर इठलाते हो। अपनी तुच्छ भाषा शैली पर देशद्रोहियों कुछ तो तुम शर्म करो।  रह गयी हो थोड़ी भी लाज तो चुल्ली भर पानी मे डूब मरो।।"

अब कहां हमसे दीवाने रह गये

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प्रेम की परिभाषा और मायने बदल गये,  तब न होती थी एक- दूजे से मुलाकाते,  सिर्फ इशारों मे होती थी दिल की बातें,  बड़े सलीके से भेजते थे संदेश अपने प्यार का।  पर अब कहाँ वो ड़ाकिये कबूतर रह गये,  पर अब कहाँ हमसे दीवाने रह गये।   जब वो सज- धजकर आती थी मुड़ेर पर,  हम भी पहुँचते थे सामने की रोड़ पर,  देखकर मुझे उनका हल्का- सा शर्माना,  बना देता था हमे और भी उनका दीवाना।  पर अब कहाँ हमसे परवाने रह गये,  पर अब कहाँ हमसे दीवाने रह गये।   दोस्तो संग जाकर कभी जो देखते थे फ़िल्मे,  पहनते थे वेल बॉटम और बड़े नये चश्में,  आकर सुनाते थे उन्हे हम गीत सब प्यारे,  तुम ही तुम रहते हो बस दिल मे हमारे,  पर अब कहाँ वो दिन प्यारे रह गये।  पर अब कहाँ हमसे दीवाने रह गये।।   जो मिलता था मौका तो खुलकर जी लेते थे,  कभी अपनी 'राजदूत' से टहल भी लेते थे,  खूब उड़ाते थे धूल हम भी अपनी जवानी में,  कभी हम भी 'धर्मेन्द्र- हेमा' बन जी लेते थे।  पर अब कहाँ वो सुनहरे मौके रह गये,  पर अब कहाँ हमसे परवाने रह गये।  पर अब कहाँ हमसे दीवाने रह गये।।  #80 दशक के युवा दिल की धड़कन प्रस्तुत करती पंक्तियाँ... 

बेटे भी रोते है

ये भाग- दौड़ के किस्से अजीब होते है,  सबके अपने उद्देश्य और औचित्य होते है।  कभी शिक्षा कभी जीवन की नव आशा मे,  सिर्फ बेटियाँ ही नही,बेटे भी घर छोड़ते है।  जीवन मे सबके अजीब उधेड़बुन होती है,  समस्याओं की फ़ौज सामने खड़ी होती है।  गुजरना पड़ता है जब विपरीत परिस्थितियों से,  सिर्फ बेटियाँ ही नही,बेटे भी प्रताड़ित होते है।   जब सफलता और रोजगार की बात होती है,  असफलता पर जब कुण्ठा व्याप्त होती है।  सारे प्रयास और प्रयत्न होते है जब निरर्थक,  सिर्फ बेटियाँ ही नही,बेटे भी खूब रोते है।  घर से दूर रहकर सब तकलीफें सहते है,  कभी खाते है कभी भूखे भी रह जाते है।  जी भरकर देखते है तस्वीर अपने माँ- बाप की,  सिर्फ बेटियाँ ही नही,बेटे भी कम सोते है।

कोरोना बेवफाई

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     बुरी नजर वाले चीन तेरा मुँह हो काला तूने निर्मोही ये कैसा वायरस बना डाला। तूने रिश्तों की कर डाली है ऐसी की तैसी, फिर मधुरता न होगी सम्बन्धों मे पहले जैसी। कोरोना ने आकर रिश्तों मे आग लगायी, जीवन है कीमती यह बात भी समझायी। कोरोना तो अब प्यार पर भी भारी हो गया, जो था सबसे प्यारा वह अब बेगाना हो गया। लाख मिन्नतों पर राँझे से हीर न मिलने आयी, सोशल डिस्टेंसिंग की हीर ने दी खूब दुहाई। बेताब! राँझे को एक बात भी समझ न आयी, उसने की वफ़ा पर बदले मे मिली बेवफाई। कोरोना के ड़र से तू आज न मिलने आयी, कसम तुझे अब तू झेलेगी बड़ी लम्बी जुदाई। कोरोना का इलाज तो किसी तरह हो जायेगा, पर बोल तेरा राँझा तुम बिन कैसे जी पायेगा। मुबारक हो तुझे ये कोरोना काल की चालाकियाँ, पर अब तुझे न मिलेगी दोबारा कोई माफियाँ। मै भी अब सेनेटाईजर से प्यार करूँगा, मास्क पर अपनी जान निसार करूँगा। सोशल डिस्टेंसिंग का खूब पालन करूँगा, बेवजह अब न घर से बाहर निकालूँगा। पर सुन लो हीर!तुम सा ना कभी निर्दयी बन पाऊँगा, जो मिलने को कहेगा उससे खूब मिलने भी जाऊँगा। सुनो!हीर तुम्हारी तरह मै न कोई झूठे बहाने बनाऊँगा, रिश्ते निभाऊँगा सारे

मन करता है

 मन करता है... कि जी लूं कभी अपने हिस्से का जीवन  कुछ न सोचूं न ही कुछ समझूँ।  बन यायावर ... देखूँ सब कुछ  चहुँ दिशाओं मे कुछ न माँगू न ही कुछ जानूं।  मन करता है... कि बन फक्कड आवारा घूमू  कुछ न खाऊँ न ही कुछ पीयूं।  मन करता है... बस...मन करता है।। 

अभिभावको से अपील

"दुनिया में कोरोना है भयंकर महामारी,  इससे बचने की रखो सब पूरी जानकारी।  घर के बाहर इसका संक्रमण है ज्यादा, इसलिये अभिभावकगण करो यह वादा।  बच्चों को गाँव के बाहर न पढ़ने भेजो,  इन्हें अभय जीवन का वरदान तुम दे दो।  गाँव के प्राथमिक विद्यालय मे नाम लिखाओ,  शिक्षा और सुरक्षा का यह दृढ़ संकल्प अपनाओ।" 

सच्चा प्रेम

सागर की गहराई बूँद से बढ़कर नही,  कोई भी सच्चाई मौत से बढ़कर नही।  चाहे लाख ढिंढोरे पीट ले यह सारा जमाना...  किसी का प्रेम...  माँ की ममता से बढ़कर नही।। 

हम शिक्षक है

राशन वितरण,सामुदायिक रसोईघर  और क्वारन्टीन सेंटर पर डटे है।  हम शिक्षक है... हम भी कोरोना के खिलाफ़ जंग के मैदान मे खड़े है।

बड़े सयाने लोग

तारीफ़ न सही तो आलोचना ही कर दिया करो,  गर हो गये हो गूंगे तो इशारा ही कर दिया करो।  सयाने बनकर देखते हो तुम  चलन सारे जमाने का ...  गर चुप ही रहना है तो निगाहें नीची कर लिया करो।

सुर - असुर

किसने कितना फ़र्ज निभाया,  किसने कितने पत्थर फेंके...  हमने इस कठिनाई के दौर में,  लोगों के असली चेहरे देखे... डॉक्टर,पुलिस और सफ़ाईकर्मियों में,   जीवन्त मानवता के लक्षण देखे...   इस बुरे वक्त के अविस्मरणीय पलों में, हमने सुर-असुरों में भेद है देखे....!!  

सच कहता हूँ

आया 'कोरोना वायरस' सबसे ज्यादा हम बेहाल हुये,  सच कहता हूँ,हम मजदूरों के बहुत ही बुरे हाल हुये।  छूटा रोजगार तो दाल रोटी के लाले हो गये,  मकान मालिक भी किराये के तलाशी हो गये।  हम मजदूर,मजबूर,बेबस व लाचार बन गये,  उठा झोला परिवार संग घर की ओर चल दिये।  न ट्रेन,न ही मोटरकार और न ही कोई बस मिली,  पैदल ही चले क्योंकि न कोई और आशा दिखी।  हम गिरे,गिरकर फिर उठे,चल दिये,चलते गये,  खुद रोये,खुद चुप हो गये,आगे बढ़े,बढ़ते गये।  भूख,प्यास से हम जूझते गये फिर भी आगे बढ़ते गये,  पैरों के छालों की ना फ़िक्र की,हम आगे चलते गये।  जो आयी विपदा उसके हम गरीब न जिम्मेदार है,  जो रईस आये विदेश से वही असली कर्णधार है।  तुम 'एअरपोर्ट' पर अच्छे से उनकी जाँच करते,  होते लक्षण तो उन्हे वही ही क्वारेंनटाईन करते।  न फैलता वायरस और हम सब सुरक्षित बच जाते,  चन्द रईसों के चक्कर मे यूँ न हम दर-दर की ठोकर खाते।  करनी इनकी थी पर बदनाम हम गरीब मजदूर हो गये,  इन पासपोर्ट्स के चक्कर मे राशनकार्ड के चिथड़े उड़ गये।"

मजदूर हूँ

मजदूर हूँ  पैदल चल पड़ा  घर की ओर विपदा आयी सबने छोड़ दिया मौत की ओर आशावादी हूँ  खुद ही जीत लूँगा यह युद्ध भी तुम कौन हो? समाज या शासन बोलो खुद ही बन निष्ठुर हमे ढ़केल दिया  काल की ओर...!!'

सुनो गाँव!अब परदेश न जाना

आयी विपदा न कोई सहाय हुआ छूटा रोजगार बहुत बुरा हाल हुआ तुम्हारा कष्ट भी किसी ने न जाना पसीने से सींचा जिन शहरों को... किसी ने तनिक एहसान न माना सुनो लला!अब परदेश न जाना।। छोड़ आये थे तुम जिसे एक दिन आयी फिर उस गाँव-घर की याद पश्चाताप की इस कठिन घड़ी में  न ही तेरा कोई हुआ सहाय गाँव का सफ़र पैदल पड़ा नापना सुनो लला!अब परदेश न जाना।। तुम गाँव मे रहकर मेहनत खूब कर लेना परिवार का भरण पोषण भी कर लेना मन हो भ्रमित तो याद फिर... खूब उन विपदा के पलों को कर लेना सुनो लला!अब परदेश न जाना।। सुनो गाँव !अब परदेश न जाना।।

संस्कार

गूंगा नही हूँ मै.... मुझे भी बोलना आता  है। गुलाम हूँ अपने संस्कारों  का... वरना मुझे भी  सबक सिखाना आता है।।

एम.डी.एम.मेन्यू गीत

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प्रतिदिन समय से हम स्कूल है पढ़ने जाते, सोमवार को रोटी सब्जी और फल है खाते।  मंगलवार को सब्जी युक्त दाल चावल है भाता,  नित प्रति स्कूल मे हमे योग है सिखाया जाता।  बुधवार को दूध पीकर तहरी है हम खाते,  प्रार्थना सभा मे रोज सब राष्ट्रगान है गाते।  गुरुवार को मिलकर दाल रोटी है हम खाते,  गुरूजन नित हमे नया सबक है सिखाते।  सब्जी युक्त तहरी शुक्रवार को स्कूल में है बनती, पुस्तकालय से हमे किताबें पढ़ने को है मिलती।  शनिवार को सब्जी चावल हम है खाते,  फिर खेलकूद के लिये मैदान मे है जाते।। आग्रह:-शिक्षकगण इसे अपने विद्यालय की दीवार पर लिखवा सकते है। धन्यवाद।।

अब क्या

फूलो को क्या अब महकना सीखना पानी को क्या कब प्यासा रहना पंछी हूँ मै खुले आसमान का मुझे क्या अब उड़ना सीखना।।

कल्कि अवतार

कल्कि का धर अवतार प्रभुजी धरा पर आ जाओ। बढ़ गया है पाप आप आकर इसे मिटा जाओ।

हमदर्दी

हमदर्दी की चादर अब सुकुड़ सी गयी है। मानवता और दया अब कुछ कम पड़ गयी है।।

संताप

हुआ है मन मे संताप तो अब क्या फायदा? माँ बाप का दिल दुखाकर मिले गर खुशी…. तो उस खुशी का क्या फायदा???

तन्हा

समय पर सीख लो रिश्ते निभाने। वरना हो जाओगे बिल्कुल बीराने।।

हकीकत

सपने भी हकीकत मे बदल सकते है। छूटे हुये लोग फिर से मिल सकते है।। गर हौसला है और खुदा पर यकीन । तो रेगिस्तान मे भी फूल खिल सकते है।

श्रीराम

गुलशन तो तू है मेरा बहारों का मैं क्या करूँ नैनों मैं बस गए हो तुम श्रीराम नज़ारों का मैं क्या करूँ ..

शब्द अर्चना

मेरा कुछ भी लिखना…प्रभु जी तुम्हारी अर्चना का ही रूप  होता है… अपने शब्दों से तुम्हे पुकारना… तुम्हे याद करना होता है….

ड़र

डर कर आज तक क्या मिला है जमाने को। दाव पर सब लगाना पड़ता है कुछ अच्छा पाने को।

कोशिश

फ़ैसला हार जीत का तो समय तय करता है। कोशिश मे रह न जाये कसर यह हमे तय करना है।।

तिरस्कार

मिलने की वजह भी हम तो बेवजह ढूँढते है। उन्हें मिलना ही नही और हम बहाने ढूँढते है।

दुआ

दर्द है बहुत पर दर्द की वजह का पता नही। दवा चाहिये या दारु या दुआ होगी कबूल… अब यह भी पता नही।।

दोस्त

जो बर्दाश्त न कर पाये वो दोस्त कैसा। जो समझ न उनसे फिर रिश्ता कैसा।।

नाकाम

मेरी कोशिशे नाकाम कर तुझे क्यो अच्छा लगता है।  तेरे जहन मे जलन का मुद्दा ही क्यो चलता रहता है।  है हिम्मत गर तुझमे तो क्यो न कदम आगे बढाता है।  तब देखूं मेरे सिवा तुझे कौन अपना नजर आता है।।

आओ कभी

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कभी आओं फुर्सत मे सब मिलजुलकर एक साथ बैठे,  कुछ तुम कहो अपनी और कुछ हाल हम भी पूछे।  इस जिन्दगी की आपाधापी मे हम खुद को ही भूल गये,  न जाने कितने रिश्ते-नाते हमसे पीछे छूट गये।  सबका जीवन है विपरीत परिस्थितियों से भरा हुआ,  हर इन्सान है रोजी-रोटी के चक्कर मे ही पड़ा हुआ।  ये तो सब चलता आया है और आगे भी चलता जायेगा,  मिलजुल लो सब आपस मे गुजरा वक़्त फिर न आयेगा।।

नींद

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नींद अक्सर आती नही है रातो मे, मन उलझा रहता है अजीब बातों में। बहुत उधेड़बुन है यार हमारी जिन्दगी मे, आपसे अपना हाल कहते है हकीकत मे।।

लेखनी

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नित भाव मन मे उमड़ रहे है  किन्तु लेखनी साथ न देती।  चहुँओर खुशबू को है बिखरना  परन्तु सरल समीर साथ न देती।।

माँ शारदे

मेरी खुशी है वहाँ तक जहाँ तेरी खुशबू फैली है, इन वादियों मे तेरी ही हर जगह रहमत फैली है। अपना आशीर्वाद हम पर बनाये रखना माँ शारदे! तेरी ही कृपा से हमे अपनी पहचान मिली है।।

प्राइमरी के मास्टर

अपने संकल्प,समर्पण से हम संभावनाओ को साकार बनाते है, हम सब मिलकर ही बेसिक शिक्षा का दीप जलाते है।  हाँ,हम ही तो प्राइमरी के मास्टर कहलाते है।   नन्हे-मुन्हे बच्चो की तोतली बोली पर ककहरा राग सजाते है, उनकी प्यारी लयबद्धता पर हम कविता पाठ कराते है।  हाँ,हम ही तो प्राइमरी के मास्टर कहलाते है।   ग्रामीण परिवेश के नौनिहालो को दुनिया की बात बतलाते है, आंग्ल भाषा मे उनको सारी बात सिखलाते है।  हाँ,हम ही तो प्राइमरी के मास्टर कहलाते है।  पढ़ायी की गुणवत्ता मे हम आई.सी.टी. को अपनाते है,  बच्चों को योगा और पी.टी. भी नित्य कराते है।  हाँ,हम ही तो प्राइमरी के मास्टर कहलाते है।  स्वास्थ्य रक्षा हेतु हाथ धुलने की विधि सिखलाते है,  शौचालय के प्रयोग की महत्ता भी सबको बतलाते है।  हाँ,हम ही तो प्राइमरी के मास्टर कहलाते है।  बच्चो के भविष्य निर्माण हेतु हम नवाचार अपनाते है, उनके जीवन मे हम ही शिक्षा की अलख जगाते है।  हाँ,हम ही तो प्राइमरी के मास्टर कहलाते है।  हाँ,हम ही तो प्राइमरी के मास्टर कहलाते है।।