हम भी है राहों में
लेख:- हम भी है राहों में
हमें अक्सर कुछ ऐसे लोग दिख जाते है जो बहुत ही दयनीय अवस्था मे होते है। ऐसे लोग सड़क के किनारे, डिवाइडर पर बैठे हुये और इधर-उधर घूमते हुये दिखाई पड़ते है। ये फटे-पुराने कपड़े व चिथड़े लपेटे हुये होते है। कभी ये अर्ध या कभी पूर्णरूप से नग्नावस्था मे भी घूमते-फिरते दिखायी मिल जाते है। कौन है ये लोग? क्या इनका भी कोई अपना है इस दुनिया मे? क्या ये लोग हमेशा से ही ऐसे थे? क्या ऐसे प्रश्न आपके जहन मे आये कभी? क्या इन्हे देखकर इनके लिये हमें कुछ करना चाहिए?
वास्तव मे, ऐसे लोग मानसिक रूप से विक्षिप्त होता है। इन्हे न तो अपना होश होता है और न ही इस दुनिया का। यहां तक ये अपना नाम और पहचान भी भूल चुके होते है। न ही इनका कोई घर होता है और न ही ठिकाना। ये अवारा यायावर बनकर अनन्त अंधकार की ओर बस चला करते है। इन्हे जाड़ा,गर्मी,बरसात से कोई फ़र्क नही पड़ता। चाहे पतझड़ हो या बसंत बहार किन्तु इनके जीवन मे सिर्फ होता है असीम अन्धकार। आखिर इनकी हालत ऐसी कैसे हो गयी? इनके घरवालों इन्हे घर ले जाकर इनकी देखभाल क्यो नही करते?
इन बातों पर विचार अति आवश्यक हो जाता है।
कुछ लोगों को छोड़कर बाकी सभी लोग जन्म से ही मानसिक रूप से विक्षिप्त नही होते। जीवन मे काम के दबाव, उलझनों और परेशानियों के बीच, कुण्ठा व असफलता या किसी असहनीय दुर्घटना के कारण कुछ लोग अपना मानसिक संतुलन खो बैठते है। कुछ लोगों के घरवालों को स्थिति का अंदाजा हो जाता है तो वो इनका विशेष ध्यान रखते है। मानसिक चिकित्सक से सलाह लेकर इलाज भी कराते है। बहुत से लोग ठीक भी हो जाते है। यदि इलाज के दौरान या मानसिक असन्तुल के समय तनिक सी भी लापरवाही होती है तो ये लोग घर से निकल जाते है और दुनिया की भीड़ मे खो जाते है। इसमे वो लोग भी शामिल होते है जो घर से दूर अकेले रहते है और मानसिक संतुलन बिगड़ने पर सड़को पर भटकना चालू कर देते है। समय के साथ इनकी पहचान मिट सी जाती है। ये खुद अपनी पहचान बताने के लायक नही रहते और इन्हे देखकर कोई पहचान भी नही सकता। ये गर्मियों मे दर्जनों कपड़े शरीर पर लपेट लेते है तो कभी जाड़ो मे खुले बदन घूमते है। बाल बड़े और धूल मिट्टी मे सने हुये होते है। भूख प्यास और मौसम की मार से शरीर जीर्ण-शीर्ण हो चुका होता है। समय की चादर इनकी पहचान को ढ़कती चली जाती है। कभी -कभी ये अपनो से सैकड़ों मील की दूरी पर निकल जाते है। इस हालत मे इनकी पहचान करना असंभव हो जाता है।
हम इन्सान है और मानवीय मूल्यों यथा दया,परोपकार,संवेदना और परवाह का हमारे हृदय मे होना लाजमी है। जब हम इन मानसिक विक्षिप्त लोगो को देखते है तो हमारी आत्मा से आवाज आती है कि हमे इन लोगों के लिये कुछ तो जरूर करना चाहिये।
अब विचार यह करना है कि हम इनके लिये क्या कर सकते है। अभी कुछ दिन पहले सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो मे मैने देखा कि पीसीएस रैंक के एक अधिकारी को अपनी ड्यूटी के दौरान एक मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति दिखायी पड़ा। वह उसकी सहायता हेतु उसके पास गये फिर बातचीत के दौरान उन्हे यह ज्ञात हुआ कि यह तो उनका बैच मैट है। उसे वह इलाज हेतु अपने साथ ले गये।
इसी तरह के वीडियो मे एक महिला स्टेशन पर दयनीय स्थिति मे दिखी तो कुछ लोगो ने जब उससे बात की तो वह अंग्रेजी मे धाराप्रवाह बात करने लगी। सभी अचंभित रह गये। उसने बताया कि वह बैंक मे प्रबन्धक पद पर कार्यरत थी। यह सब आश्चर्यजनक लगता है किन्तु सत्य है कि इतने पढ़े-लिखे लोग भी इस दयनीय दशा मे पहुँच जाते है।
जब भी हमे ऐसे लोग दिखे तो हम समय निकालकर उनके लिये कुछ प्रयास कर सकते है। हम ऐसे लोगो की सहायता के लिये प्रशासन,एनजीओ, स्वयंसेवी संस्थाओं,सामाजिक कार्यकर्ताओं या स्थानीय लोगो की मदद ले सकते है। सरकार को भी इन लोगो के ईलाज व बेहतर जीवन के लिये कुछ सार्थक कदम उठाने चाहिए।
दया मानव का सर्वोत्तम गुण है। इन्सान का इन्सान के प्रति भी दायित्व बनता है। इसलिये हम स्वयं के स्तर से इन बेसहारा,अपरिचित व घुमन्तू लोगो के लिये भी अवश्य ही कुछ न कुछ कर सकते है। हम अपने मित्रो और परिजनों का एक समूह बनाकर किसी छुट्टी के दिन इन लोगो के लिये खाने,कपड़े की व्यवस्था कर सकते है। इससे ज्यादा हम स्थानीय प्रशासन का सहयोग लेते हुये और सोशल मीडिया के प्रयोग से इन्हे इनके परिवार से मिलाने का कार्य भी कर सकते है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा था कि 'परहित सरिस धर्म नहि भाई', इसलिये हमें इस बात का स्मरण करते हुये, इस तरह के दयनीय लोगो की दशा सुधार हेतु सार्थक प्रयास करने चाहिये। यदि आप परोपकार करेंगे तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप बहुत ही बेहतर महसूस करेंगे।
लेखक:-
अभिषेक कुमार शुक्ला
स्वतंत्र लेखक व सोशल ऐक्टिविस्ट
सीतापुर,उत्तर प्रदेश
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