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Showing posts from March, 2019

चाय पर चर्चा

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दूध के सारे दाँत समय से पहले ही टूट गये,  जिन्दगी की शुरुआत मे ही विधाता रूठ गये।  मजबूरियों ने हाथ मे चाय की केतली क्या पकडाई,  मैने करीब से देखी अपने बचपन की अंगडाई।  चाय की चुश्कियों मे अभिषेक अब मिलावट हो गयी,  आडी तिरछी जिन्दगी की सारी लिखावट हो गयी।  चाय से ज्यादा अब चाय पर चर्चा हो रही है,  इसकी बिक्री मे भी भारी गिरावट हो गयी है।  जरूरी नही हर एक चाय बेचने वाला चौकीदार बने, क्योंकि गरीब के बचपन पर भारी इसकी गर्माहट हो गयी है।  रचनाकार:-  अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'

हौसला

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'बिन मेहनत के रोटी नही मिलती,गरीब के घर मे खुशियाँ नही सजती। हौसलों के पंख से उड़ान कितनी भी भर लो,पर पेट की भूख नही मिटती।  फौलादी इरादों से साँसो का दामन थाम रखा है,वरना यहाँ मौत भी आसान नही मिलती।  सुना है सारा संसार रंगोत्सव मना रहा है,पर यहाँ कोरी किस्मते कहाँ रंगती।  जद्दोजहद है जिन्दगी मे कि किसी दिन सुकून मिलेगा,उसी दिन सतरंगी यह चेहरा भी सजेगा।  मजबूरी मे मजदूरी कर मजबूरी से निपटते है,हम गरीब होली पर भी पसीने से ही रंगते है।'  रचनाकार:-  अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'

हाँ,मै भी बेरोजगार हूं।

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सब सो जाते है पर मुझे रात मे भी नीद आती नही है, मेरे बेचेंन मन को कोई भी बात अब भाती नही है।  साहब!बता दूँ सबको कि मै कोई चौकीदार नही हूं,  मै पढ़ा लिखा,डिग्रीधारी एक बेरोजगार हूं। बूढ़े माँ बाप की हर पल चिन्ता सताती रहती है,  भाई बहनों की जिम्मेदारी भी याद आती रहती है।  जब भी कोई नौकरी की आशा की किरण जगती है,  वही भर्ती हमेशा अन्त मे कोर्ट मे जाकर फसती है।  चार पैसे कमाने के बारे मे दिन रात सोचा करता हूं,  पर इन्ही परिस्थितियों मे भी मन लगाकर पढ़ता हूं।  कभी खुद की,कभी घर की चिन्ता मे डूबा रहता हूं,  इसीलिए शायद आजकल मै रातो को जागा करता हूं।  साहब! बता दूँ सबको कि मै कोई चौकीदार नही हूं।  मै पढ़ा लिखा,डिग्रीधारी एक बेरोजगार हूं।। शेयर करे। रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'

होली मनाऊंगा

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'चलो तुम संग नही खेलते रंग और गुलाल,न ही हम करेंगे इस बात का कोई मलाल। जरा तुम भी स्मरण कर लेना,जब कोई और हाथ बढाये रंगने को तुम्हारे गाल। सतरंगी रंगो को बिना छुए रह लूँगा,तुम बिन बेरंग से पल भी किसी तरह जी लूँगा।  होली खेलेंगे जब सब मिलकर,तब मै तुम्हारी खुशबू से खुद को रंग लूँगा।  जब सब मीठी गुझियां खायेंगे,तब मै तुम संग बिताये मीठे पलों मे खो जाऊंगा।  सब रंग बिरंगे नए कपड़े पहन सज जायेंगे,मै भी तेरे सतरंगी सपनो मे खो जाऊंगा।  मै प्यार के रंग से इस त्यौहार के रंग मे रंग जाऊंगा,प्रेम मे सराबोर हो मै तो होली मनाऊंगा।  चाहे कोरी रहे सारी दुनिया,पर मै तो तितलियों सा रंग मे रंग जाऊंगा।'  होली की हार्दिक शुभकामनाएं.... रचनाकार:-  *अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'*

रोटी और जिगर

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'सदियां गुजर गयी,सारी रियासतें सिमट गयी, शान शौकत की बात पर तलवारें निकल गयी। सब कुछ मिटा,मिट रहा है और मिट जायेगा, पर रोटी का मामला कभी सुलझ न पायेगा।  मजबूरियाँ है किस कदर कोई क्या समझेगा? जीवन यापन की समस्या से कैसे कोई निपटेगा? रोटी की खातिर न जाने क्या-क्या आजमाना पड़ता है, जिगर के टुकड़े को भी कभी-कभी दांव पर लगाना पड़ता है।' रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'

पत्थर और प्रेम

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हर इन्सान अकेले मे पत्थर बना बैठा है,  खुद की नजर मे वह भगवान बना बैठा है।  बड़ी चतुराई से वह खुद को तराश बैठा है,  मिट्टी का पुतला खुद को सयाना समझ बैठा है।  अपनी अक्लमंदी से सब रिश्ते बिगाड़ बैठा है,  खुद ही सब कुछ है यह गलतफहमी पाल बैठा है।  अपने स्वार्थ मे परिवार की जड़े हिला बैठा है,  धन और वैभव को ही विधाता मान बैठा है।  किस्मत ने भी यहाँ अजीब खेल खेल बैठा है,  पत्थरों को भी प्रेम ने यहाँ परिवार बना बैठा है। रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'

कारवां बन जायेगा

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ठोकरे खाकर भी जो न सम्हले वो मुसाफिर कैसा?  मंजिले न हो हासिल तो फिर उसका जूनून कैसा?  दुनिया की तस्वीर न बदल सको तो कोई बात नही,  तुम अपनी तकदीर न बदल सको तो ये बात न सही।  मुमकिन है जो तुम्हे सही लगे वो रास्ता तो गलत हो सकता है, मजबूत इरादे हो पर मंजिल न मिले ये नामुमकिन सा लगता है। खुद पर है जो भरोसा तो अच्छा सा कारवां भी बन जायेगा,  चलते हुये सफ़र मे खुशियों का गुलिस्ता भी मिल जायेगा।

क्या कहता दोस्तो!

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मरहम का फितूर मत पालो,घाव तो यूं ही मिलते रहेगे,  मुशाफिर हो गिरोगे,उठोगे और सफ़र यूं ही कटते रहेगे।  जिसको बसाया है तुमने अपनी दिल की धड़कनो मे,  वो वक़्त बे वक़्त तुम्हे यूं ही जरा जरा सा दर्द देते रहेंगे।  जो कभी उनसे तनिक भूले से भी कोई शिकायत कर दी,  यकीन मानो वो कहेगे कि तुमने बड़ी बेवफाई कर दी।  दिल मे बसने वालो की भी फितरत अजीब होती है,  घाव नये देते है जहाँ वो सिर्फ उनकी ही जगह होती है।  समझाने को बहुत कुछ समझाया जा सकता था,दोस्तो!  सजाकर किसी और का नाम वो सामने से गुजरा था,दोस्तो!!  रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'