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Showing posts from November, 2018

नेता जी तुम क्यो अकड रहे हो?

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नेता जी तुम क्यो अकड रहे हो ? बिन पेंदे के लौटे सा लुढ़क रहे हो तुम थाली के बैगन से दिख रहे हो हर चुनाव मे दल क्यो बदल रहे हो? नेता जी तुम क्यो अकड रहे हो? गिरगिट सा रंग रोज बदल रहे हो चुनाव मे किये सारे वादे भुलाकर तुम क्यो अपनी ढ़पली बजा रहे हो? नेता जी तुम क्यो अकड रहे हो? जनता को मूर्ख क्यो समझ रहे हो? जाति,धर्म और मानवता की बलिवेदी पर  तुम तो राजनीति की रोटी सेक रहे हो। नेता जी तुम क्यो अकड रहे हो? वोट के लिए धर्म भी बदल रहे हो एक दूजे पर तंज भी कस रहे हो वोट पाने का ताना बाना बुन रहे हो। नेता जी तुम क्यो अकड रहे हो? रोजगार,शिक्षा,स्वास्थ्य और विकास भूलकर तुम कैसी ये राजनीति अब कर रहे हो? बोलो सपनो का भारत तुम कैसा रच रहे हो?

रोटी और शिक्षा

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'कैसी यह विडम्बना और कैसा अत्याचार है? आज तो खुद ही पुरुषार्थ भी लाचार है। देख कर यह दृश्य आता मन मे हर बार है, आज जीवन की सत्यता आर्थिक आधार है। हर गरीब को चुनना तो बस यही हर बार है। रोटी और शिक्षा मे तो बस एक विकल्प तैयार है। पीठ पर बस्ता उस पर शिक्षा का अधिकार है, नंगे पांव गुब्बारे बेचता बचपन लाचार है।' रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर' नोट:-फोटो साभार#फेसबुक

नि:शब्द हूँ

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'कभी-कभी शब्द भी नही मिलते कि कुछ लिख सकूँ, जो भी दिख रहा उसका तनिक भी वर्णन कर सकूँ। पर कैसे मैं अपनी वाणी को विराम दे दूँ ? शब्द का मौन धारण कैसे स्वीकार कर लूँ? बोलो आँखों की नमी से ईश्वर को प्रणाम कर लूँ , या शब्दों के बाण से मानवता को शर्मसार कर दूँ ? इस मंजर का बोलो कैसे तिरस्कार कर दूँ ? नि:शब्द हूँ ,बोलो कैसे,क्या?मै बखान कर दूँ ?'

आँखो की गुस्ताखियाँ

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'प्रेम की कोई न सीमा न ही इसकी उम्र है, जिन्दगी के हर पड़ाव पर शेष इसके अंश है। क्या हुआ जो अब गाल पोपले हो गये, और सिर के बाल भी सारे सफेद हो गये। तन बूढ़ा हुआ तो झुर्रिया भी है पड़ गयी, कुछ प्रेम की निशानियाँ बाकी रह गयी। दिल लग जाना अब भी मुमकिन है साहब, इसकी कुछ अठखेलियां बाकी रह गयी। उम्र तो कर चुकी है अब सारे पड़ाव पार, बाकी आँखो की कुछ गुस्ताखियाँ रह गयी।'

बेबस बचपन

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'इस तस्वीर ने मुझे खामोश सा कर दिया, जिन्दगी ने जिन्दगी से सवाल कर लिया। बचपन मे न किसी खिलौने की चाह रह गयी। खुद की जिन्दगी ही दुख का खेल बन गयी। सुना है बहुत खुशियाँ है इस जहान मे मगर, पर ये सब सुनी सुनायी सी एक बात रह गयी। क्या मिला,क्या मिलेगा और क्या बाकी रह गया? पत्थरो का बिस्तर है और दर्द क्या बाकी रह गया? गरीब को जिन्दगी से अब क्या गिला शिकवा रह गया? जब मासूम ने पत्थरो को ही फूलों की सैज समझ लिया।'

कदर कर लो यारो

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"ईश्वर ने जो दिया है उसकी कदर कर लो यारो, सम्भाल लो जिन्दगी इसकी फिकर कर लो यारो। सबको सब कुछ नही मिलता पर कुछ तो सोचो, तुमको जो मिला वो बहुतों को नसीब नही होता। कभी खुशी कभी गम तो आते रहते है जिन्दगी मे, पर खुद को हर हालात मे सम्भाले रखना यारो। कभी भूल से भी मुकद्दर को कोई दोष मत देना, क्योंकि सभी खाली हाथ यहाँ आते है दोस्तों। मेहनत से भी किस्मत की लकीरें बदलती है यहाँ, इसलिये अपने हुनर को आजमाना तुम दोस्तो। बुराई का रास्ता गलती से भी न अपनाना यारो। क्योंकि सिकन्दर भी खाली हाथ जाते है दोस्तो।।" रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'

दीवाली उसे भी मनानी है

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"दीवाली उसे भी मनानी है, दीपक भी उसे जलाने है। पिछ्ले साल न बिके थे दिये, इस साल भी दुकान सजा ली है। चका चौंध की इस दुनिया में, कौन पूछता है मिट्टी के दीपो को। सब मस्ती मे झूम रहे है, कौन पूछेंगा फिर इन गरीबो को। बीच बाज़ार मे है दुकान उसकी, वह तो अरमान सजाये बैठा है। आशा है बिकेंगे दीप भी उसके, वह तो टकटकी लगाये बैठा है। दीवाली उसे भी मनानी है। दीपक भी उसे जलाने है।।" रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'

लघुकथा:-सच्चा स्वाभिमान

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गोला गोकर्णनाथ के एक फ़ास्ट फ़ूड वाले के यहाँ मैं वेज रोल आर्डर करके बैठा हुआ था। तभी एक लड़का आया और आकर ओनर से बोला कि अगर कोई काम हो तो करा लीजिये और मुझे कुछ रुपये दे दीजिए। तो रेस्टोरेंट के मालिक ने मना किया कि कोई भी काम नहीं है। मैं शुरुआत से ये सब देख रहा था। मैंने उसे अपने पास बुलाया। वो लड़का मुश्किल से 12 वर्ष का होगा,आंखों में गंभीरता,सरल स्वभाव पर ग़रीबी और जिम्मेदारी ने उसे बहुत ही परिपक्व बना दिया था। उस लड़के की एक बात मुझे पसंद आयी कि उसने काम मांगा और काम के बदले पैसे। ये बात मेरे दिल को छू गयी। वो औरों की तरह भीख भी मांग सकता था। मैंने उसे अपने पास बिठाया, वो थका हुआ और भूखा लगा। मैंने उसके लिए भी वेज रोल आर्डर किया। फिर पूछा कि क्या नाम है तुम्हारा तो बोला श्याम सुंदर! घर पर कौन कौन है। बोला पापा हैं जो हरिद्वार में काम करते हैं । घर पर मां और छोटा भाई। तब तक वेज रोल आ गए। हम दोनों आपस में बातें कर रहे थे। फिर पूछा कितने रुपये चाहिए तुम्हें। तो वो बोला, आज ननिहाल में मेरे मामा की शादी है, माँ और छोटा भाई वहां जा चुके हैं। मेरे कपड़े सिलने पड़े हैं वो लेने हैं

पहचान न मिलेगी

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शून्य से अनन्त तक जाओ मगर, सारी सफलताये तुम पाओ मगर। जब भी याद आयेगी तुम्हे घर की, तब कही मन को लगा कर देखो। घर छोड़ते वक्त यह ध्यान रखना, आँगन की धूप- छांव याद रखना। रिश्ते जरा सलीके से निभाते चलो, अपनो को खुशी से गले लगाते चलो। देर न करना कभी घर वापसी मे, कही गलियाँ भी सवाल न पूछने लगे। जंग लगे तालो मे फिर चाभी न लगेगी, अपनो मे खोई हुई वो पहचान न मिलेगी।

दिवाली मनाते है

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'हम शिक्षक नित ही अज्ञानता का अंधकार मिटाते है, ज्ञान दीप के प्रकाश से हम तो रोज दिवाली मनाते है। कब,कहाँ,क्यो,कैसे? यह सब बच्चों को समझाते है। क्या भला,क्या बुरा? यह सब भी हम सिखलाते है। सरस्वती के पावन मन्दिर मे नया सबक सिखाते है, नवाचार का कर प्रयोग छात्रों को निपुण बनाते है। कबड्डी,खो-खो और दौड़ प्रतियोगिता करवाते है, पाठ्यसहगामी क्रियाओं का भी हम महत्व बताते है। बच्चो का कर चहुँमुखी विकास हम फूले नही समाते है। हम शिक्षक शिक्षा की लौ से रोज दिवाली मनाते है।' रचनाकार:- अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'