पत्थर और प्रेम
हर इन्सान अकेले मे पत्थर बना बैठा है,
खुद की नजर मे वह भगवान बना बैठा है।
बड़ी चतुराई से वह खुद को तराश बैठा है,
मिट्टी का पुतला खुद को सयाना समझ बैठा है।
अपनी अक्लमंदी से सब रिश्ते बिगाड़ बैठा है,
खुद ही सब कुछ है यह गलतफहमी पाल बैठा है।
अपने स्वार्थ मे परिवार की जड़े हिला बैठा है,
धन और वैभव को ही विधाता मान बैठा है।
किस्मत ने भी यहाँ अजीब खेल खेल बैठा है,
पत्थरों को भी प्रेम ने यहाँ परिवार बना बैठा है।
रचनाकार:-
अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'
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