रोटी के तमाशे

ये उम्र,ये मजबूरियाँ और रोटी के तमाशे,
फिर लेकर निकला हूँ पानी के बताशे। 
बाज़ार के एक कोने मे दुकान सजा ली, 
बिकेंगे खूब बताशे ये मैने आस लगा ली। 
सबको अच्छे लगते है ये खट्टे और चटपटे बताशे, 
इन्ही पर टिका है मेरा जीवन और उसकी आशायें। 
बेचकर इन्हे दो जून की रोटी का जुगाड हो जाता है, 
इसी कदर जिन्दगी का एक-एक दिन पार हो जाता है। 
अपने लड़खड़ाते कदमों पर चलकर स्वाद बेचता हूँ, 
इस तरह भूख और जिन्दगी का रोज खेल देखता हूँ। 

रचनाकार:- 
अभिषेक शुक्ला 'सीतापुर'

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