सोचता रह गया

"सुकून की तलाश में हम दर बदर हो गये,
जुल्म हुआ ऐसा की घर से भी दूर हो गये।
पल भर न थमी जिंदगी राहत  के लिए,
मिला न कोई हमदम आफत से बचाने के लिए।
अपनो की क्या हम तो गैरों की भी फिक्र करते रहे,
पर मुझे जिंदगी के हर मोड़ पर धोखे मिलते रहे।
कोई समझेगा मुझे देगा सुकून,
यही सोचकर हम आगे बढ़ते गये।
पर टूटा भ्रम मेरा निश्चित ये हो गया,
कौन है किसका यहाँ ये परिलक्षित हो गया।
मैं विचित्र या ये है मायावी दुनिया,
मैं तो दिन रात यही सोचता रह गया।।"

अभिषेक शुक्ला "सीतापुर"

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